उत्तराखंड में आपदा और उसके बाद: न जून 2013 की महाविनाश लेकर आई आपदा से सबक लिया, न तीन दिन की बारिश से आई तबाही नीति-नियंताओं को झकझोर रही!

दृष्टिकोण ( इंद्रेश मैखुरी): उत्तराखंड में 17-18-19 अक्टूबर को जो भीषण आपदा आई, उसके बीच में 18 अक्टूबर को कर्णप्रयाग से देहरादून तक की यात्रा करनी पड़ी। निरंतर मूसलाधार बारिश के बीच कर्णप्रयाग से देहरादून तक, लगातार, बिना रुके, कार चलाते हुए भी दस घंटे में गंतव्य तक पहुँच सका। कर्णप्रयाग से श्रीनगर (गढ़वाल) की बीच का सफर ही चार घंटे में तय हो सका, जो सामान्य दिनों में दो घंटे में तय हो जाता है।

यह फासला ऐन श्रीनगर (गढ़वाल) के पास आ कर इतना बड़ा हो गया। यहाँ दशकों से एक भूस्खलन का ज़ोन है- सिरोबगड़, जो बीच के लंबे अंतराल तक खामोश रहने के बाद पुनः सक्रिय हो गया है। लेकिन यहाँ श्रीनगर (गढ़वाल) के करीब एक और भीषण भूस्खलन क्षेत्र बन गया है- चमधार। यह बिना बरसात के भी बेहद डरावना है। सड़क चौड़ा करने के लिए पहाड़ खोदा और पूरा पहाड़ ही नीचे आ गया। अब सामान्य दिनों में भी इस जगह पर से गाड़ी पार करवाना, सर्कस के मौत के कुएं का संक्षिप्त संस्करण मालूम पड़ता है! यहाँ सूखे मौसम में भी लगने वाले जाम के चलते लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि चमधार, जामधार हो गया है।

यह किस्सा इसलिए सुना रहा हूं कि भारी बारिश के अलावा उन कारणों पर भी निगाह जा सके, जो आपदा की आफत को और बढ़ा देती हैं। एक सड़क जो नब्बे के दशक में भी चौड़ी हुई और तब भी वह भारी-भरकम उपलब्धि बताई गयी, 2017 से फिर चौड़ी की जा रही है, पुनः उसे उपलब्धि की तरह ऐसे प्रचारित किया जा रहा है, जैसे कि पुरानी सड़क चौड़ी न करके एकदम नयी सड़क बनाई जा रही हो। सड़क तो नयी नहीं है पर चमधार जैसे भूस्खलन के सैकड़ों नए ज़ोन एक दम नए और ताजा हैं, इस पर! शुरू में इसे आल वैदर रोड कहा गया, लेकिन अब इस पर हर मौसम में पहाड़ों का दरकना देख सकते हैं !


एक किस्सा और देखिये। 19 अक्टूबर को दोपहर 1 बजे एक युवक दिव्यांश भट्ट ने ट्वीट किया कि वे उससे पहली सुबह से चंपावत के घाट-पनार रोड पर फंसे हुए हैं। 20 अक्टूबर तकरीबन सुबह 11 बजे, सीपीआई के राज्य सचिव कॉमरेड समर भंडारी ने यह ट्वीट मुझे भेजा और कहा कि देखिये इस पर क्या हो सकता है। चंपावत के डीएम और एसपी के नंबर तलाश करके मैंने उन्हें व्हाट्स ऐप पर संदेश भेजा। मैसेज चला तो गया, लेकिन डिलीवर नहीं हुआ। फोन करने की कोशिश की तो फोन लगा नहीं। फिर चंपावत के एसपी- देवेंद्र पिंचा के ट्विटर अकाउंट के मैसेज बॉक्स में भी मैंने यह संदेश भेजा और साथ ही लिखा कि फोन नहीं लग रहा है। शाम पाँच बजे पुलिस अधीक्षक, चंपावत का संदेश आया कि सड़क खुल चुकी है तो ये घर पहुँच गए होंगे और दिव्यांश भट्ट के ट्वीट से भी इस बात की पुष्टि हो गयी। लेकिन इसी प्रक्रिया में यह भी मालूम पड़ा कि 20 अक्टूबर को भी चंपावत में पूरे दिन लाइट नहीं थी।

सोचिए जब विद्युत आपूर्ति बाधित होने और नेटवर्क के ध्वस्त होने के चलते अफसरों के मोबाइल फोन और सरकारी लैंडलाइन फोन भी धराशायी हो जाएं तो आपदा के मारे गुहार भी कैसे लगाएंगे ?
17-18-19 अक्टूबर को हुई भीषण बारिश ने राज्य में जो तबाही मचाई, उसके बारे में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का बयान था कि तबाही 2013 की आपदा से भी भयावह है। हालांकि भारी बारिश की पूर्व चेतावनी मौसम विभाग द्वारा दी गयी थी और सरकार ने उसके अनुरूप कुछ एक्शन में दिखने की कोशिश भी की। बावजूद इसके भारी जनहानि, सड़क, व्यक्तिगत एवं सरकारी चल-अचल संपत्ति का नुकसान हुआ।


लेकिन इस भीषण तबाही से हमने सबक क्या सीखा ?

आपदा के बीतते-न बीतते फिर सड़कों के डबल लेन-फोर लेन का राग चालू। मलारी की सड़क को डबल लेन बनाने की खबरें तुरंत ही तैरने लगी। यह सड़क सिंगल लेन होते हुए भी महीने-दर-महीने निरंतर अवरुद्ध होती रही है। ऐसा लिखते ही कुछ लोगों को लगता है कि यह बेहतर सड़क बनाए जाने का विरोध है। यह बेहतर सड़क का नहीं उस बदतरीन तरीके का विरोध है, जिसमें अधिकतम मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए प्रकृति को भारी नुकसान पहुंचा कर तमाम निर्माण कार्य किए जाते हैं।
हमारी सरकारें निरंतर तबाही को आमंत्रित करती रहती हैं। उसे तबाही लाने वाले मुनाफाखोर विकास के मॉडल से अत्याधिक प्रेम है। इसी साल फरवरी में जोशीमठ में जल प्रलय और उनके रास्ते में आने वाली दो जल विद्युत परियोजनाओं ने जो तबाही मचाई, उसके चलते तकरीबन दो सौ लोग जान से हाथ धो बैठे। लेकिन केंद्र सरकार क्या कर रही है ? 2013 की आपदा के बाद उच्चतम न्यायालय ने जिन परियोजनाओं को विनाशकारी मानते हुए, उन पर रोक लगा दी थी, केंद्र सरकार, उन्हें पुनः शुरू करने का रास्ता निकाल रही है।

अचानक होने वाली इस तरह की बारिश या तबाही के दो अन्य पहलू हैं- जलवायु परिवर्तन और अनियोजित निर्माण। ये दोनों ही कारक विनाश का कारण भी बन रहे हैं और प्रकृति के साथ मनुष्य का खिलवाड़ और बेजा हस्तक्षेप, इनके मूल में हैं।
इसी साल जारी आईपीसीसी की रिपोर्ट कहती है कि मनुष्य के हस्तक्षेप ने जलवायु को जितना गर्म कर दिया है, वह पिछले दो हजार साल में अप्रत्याशित है। रिपोर्ट कहती है कि इसके नतीजे के तौर पर अत्याधिक गर्म हवाएँ, अत्याधिक वर्षा, अत्याधिक सूखे की घटनाएं ज्यादा भीषण और अक्सर हो रही हैं। रिपोर्ट के अनुसार धरती के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि, जिन चरम प्राकृतिक घटनाओं को अंजाम देगी, उसमें अतिवृष्टि में सात प्रतिशत की वृद्धि भी शामिल है। लब्बोलुआब यह है कि यदि प्रकृति के साथ विकास के नाम पर इसी तरह का खिलवाड़ किया जाता रहा तो ये विनाश की घटनाएं, आने वाले समय में आम घटनाएं होने जा रही हैं।
दूसरा जिस तरह से अनियोजित शहरीकरण और अनियोजित निर्माण हो रहा है, वह विनाश की किसी भी विभीषिका की तीव्रता को कई गुना बढ़ा देता है। निर्माण की तेज रफ्तार ने सारे प्राकृतिक निकासों(natural drainage) को पाट दिया है। नतीजा जलजमाव और जल भराव। यह पानी जिसे ऐसे समय में मुसीबत का कारक समझा जाता है, मुसीबत वह नहीं है। मुसीबत तो सरकारों और बिल्डरों ने बुलाई है, उसके निकास के सारे रास्ते पाट करके।

इस बात को नैनीताल के उदाहरण से समझ सकते हैं। इस बार की बारिश में नैनी झील ने इस कदर उफान मारा कि पानी सड़क पर आ गया। मोजोस्टोरी नामक अंग्रेजी पोर्टल पर छपे लेख में नैनीताल के जल निकास के बारे में रोचक तथ्य का विवरण है। उक्त लेख के अनुसार “सितंबर 1880 में तीन दिन की भारी बारिश के बाद भारी भूस्खलन के चलते विक्टोरिया होटल और 150 लोग दब गए। इस घटना के बाद 79 किलोमीटर का निकासी तंत्र (drainage network) बनाया गया, जो अतिरिक्त पानी के निकास के जरिये नैनीताल की रक्षा करता रहा।” लेख कहता है कि नैनीताल में ऐसा निकास का तंत्र, अब बदहाल स्थिति में है। ऐसा सिर्फ नैनीताल में ही नहीं तकरीबन सभी जगहों पर है, इसलिए तबाही अत्याधिक है।


2013 की आपदा के बाद भी नीति नियंताओं को सोचना चाहिए था कि उत्तराखंड में और खास तौर पर पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माण कार्य किसी तरह हों, जो कम नुकसान करने वाले हों। यह स्पष्ट नजर आ रहा है कि कंक्रीट वाले निर्माण के भार को वहन करने की क्षमता (carrying capacity) पहाड़ी जमीन में तो नहीं है। इसलिए मकान एवं अन्य निर्माण के लिए ऐसी निर्माण के तरीके की जरूरत है, जो ढलवां और भूस्खलन वाली जमीन पर कम से कम बोझ डाले। लेकिन हमारे विकास पुरुषों का फॉर्मूला तो यह है कि हर बार गारे और सीमेंट की मात्रा और बढ़ा दो। सामान्य समयों में ऐसा ढांचा मजबूत दिखता है और आपदा के समय इसका बोझ ही आपदा की विभीषिका को बढ़ा देता है।


पहाड़ के दरकने के कथित ट्रीटमेंट से लेकर झीलों के तथाकथित सौंदर्यीकरण तक यही “सीमेंट पोतो-सीमेंट भरो” फॉर्मूला पुरजोर तरीके से लागू किया जाता है ! बारिश, भूस्खलन, भूकंप आदि सभी कुछ होना ही है। इसे नहीं रोका जा सकता। लेकिन दूरगामी प्रयासों के जरिये इन आपदाओं के प्रभावों और उनसे होने वाली हानि को कम जरूर किया जा सकता है। लेकिन प्रश्न है कि ऐसी दूरंदेशी है कहां ?

साभार: एफबी

(लेखक एक्टिविस्ट एवं सीपीआई(एमएल) के गढ़वाल सचिव हैं। विचार निजी हैं।)

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