देहरादून/टिहरी: एक तरफ पांच साल से विपक्ष में बैठी कांग्रेस 2022 का देवभूमि दंगल जीतकर सत्ता हासिल करने का सपना देख रही है, तो दूसरी तरफ दिग्गज नेताओं में अभी से सिर-फुटौव्वल ऐसी मची है कि आपको बरबस ‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा’, वाली कहावत याद आ जाए।
ताजा तीरंदाज़ी पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस की चुनाव अभियान समिति के चीफ हरीश रावत और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और कांग्रेस समन्वय समिति के चीफ किशोर उपाध्याय में छिड़ गई है। किशोर के सहसपुर से चुनाव लड़ने या लड़ाने को लेकर छिड़ी बहस अब क़िस्तों में हिसाब चुकता कर लेने, धमकाने पर आ गई है। किशोर उपाध्याय ने शनिवार सुबह सोशल मीडिया में एक पोस्ट बम फोड़ते हुए हरदा पर अगले दौर का हमला बोला है।
इससे पहले हरदा कद्दू और छुरी का गणित समझाते कह चुके कि 2017 में किशोर की च्वाइस पर उनको सहसपुर से लड़ाया गया था, यहां तक कि वे ऋषिकेश, डोईवाला, रायपुर या टिहरी जहां से भी चाह रहे थे, हम उनको लड़ाने को राजी थे और जब वे सहसपुर गए तो पार्टी ने इस पर भी हामी भरी। जबकि किशोर का दर्द यही है कि उनको साज़िशन सहसपुर में उतारा गया और फिर षड्यंत्र कर हराया गया।
लिहाजा किशोर का दर्द छलक रहा है और उनका सीधा आरोप है कि हरदा उनको 17 बार सियासी दगा दे चुके हैं। खुद तो कद्दू और हरदा को छुरी बताते किशोर कह रहे हैं कि वे 17 बार उन पर छुरी चलाकर लहुलुहान कर चुके लेकिन संबंधों की मर्यादा के पालन का दिखावा करते ‘अनन्य सहयोगी’ कह रहे जिसके लिए वे उनके आभारी हैं। किशोर ने हरदा के ‘देखते हैं, कहां तक संयम साथ देता है?’ बयान पर पलटवार करते कहा है कि वे धमकी देने पर आ गए हैं लेकिन वे इससे दहशत में नहीं आए हैं बल्कि उनके भीतर कौतुहल सी गुदगुदी पैदा जरूर हो गई है।
हूबहू पढ़िए हरीश रावत को लेकर किशोर उपाध्याय का क़िस्तों में झलकता दर्द
अपने बड़े भाई श्री हरीश चन्द्र सिंह रावत जी सम्भवतः झिझक से या सम्बन्धों की मर्यादा का पालन करते हुये नाम लेने में संकोच कर गये और मैं उनका आभारी हूँ, “अनन्य सहयोगी” जैसे सम्बोधन के लिये।
उनकी दो बातों “कद्दू छुरी में गिरे या छुरी, कद्दू में गिरे”
और
“देखते हैं, कहाँ तक संयम साथ देता है”
ने मेरे दिल और दिमाग़ में दहशत तो नहीं, लेकिन, कौतूहल सी गुदगुद्दी पैदा कर दी है,
आप लोग इन दोनों बातों का मर्म समझिये।अब वे धमकी देने पर भी आ गये हैं।
“कद्दू”पर तो वे 17 बार छुरी चुके हैं।
मैं मुख्यत: टिहरी विधान सभा पर आता हूँ और जितनी विधान सभाओं का उन्होंने ज़िक्र किया है, उन पर बाद में आऊँगा।
मैं टिहरी की जनता का आभारी हूँ, उन्होंने दो बार मुझे विधान सभा पहुँचाया।नासमझ उडयारी पहाड़ी होने के कारण मैं अवसरों का कभी लाभ नहीं उठा पाया, नहीं तो पुण्यात्मा राजीव जी ने मुझे 1985 में गौरीगंज से चुनाव लड़ने के लिये कहा था।
2012 के विधान सभा चुनाव में एक नहीं अनेक षड्यन्त्र कर बेईमानी से या यों कहिये अपनी ना समझी से मैं चुनाव हार गया।कैसे? उस पर भी कभी बाद में।
चुनाव हारने के बाद लोग बिस्तर पकड़ लेते हैं, लेकिन,
षड्यन्त्र से 377 वोटों से चुनाव हारने के बाद भी मैं कांग्रेस की सरकार बनाने के अभियान में जुट गया।बसपा के विधायकों से सम्पर्क किया।एक निर्दलीय विधायक का समर्थन कांग्रेस के लिये जुटाया।
सरकार बनने के बाद सबसे अधिक नुक़सान मुझे उठाना पड़ा।मैं अपने विधान सभा में जब-जब सक्रिय होता, तब तक दिल्ली से संदेश आता कि कांग्रेस की सरकार निर्दलियों पर टिकी है, सरकार गिर जायेगी, इसलिये आप टिहरी मेंinterfer न करिये।खुद की बनायी सरकार को गिराना, क्या उचित होता?
कांग्रेस की सरकार होने पर भी सबसे उपेक्षित टिहरी विधान सभा का कांग्रेस वर्कर रहा।
मेरी हृदय से कामना थी कि
श्री हरीश चन्द्र सिंह रावत जी को उत्तराखंड का मुखिया होने का एक अवसर अवश्य मिलना चाहिये और उसके लिये मुझ से जो हो सकता था, सब प्रयत्न किये।उस पर भी बाद में कभी चर्चा करूँगा नहीं तो विषयांतर हो जायेगा।
जब रावत जी के CM बनने की बात चल रही थी तो टिहरी के निर्दलीय विधायक का समर्थन भी चाहिये था, लेकिन कितना..।
मैंने फिर नासमझी का एक sentimental निर्णय लिया और रावत जी कहा कि आप मुख्यमंत्री बनिये, टिहरी के विधायक जी को कह दीजिये मैं यह sacrifice भी करूँगा, वे ही वहाँ से चुनाव लड़ें।
जिस दिन टिहरी के विधायक को CM साहेब ने मन्त्री बनाया, सुबह मैंने उनसे किसी मसले पर बात की, उन्होंने मुझे नहीं बताया कि वे टिहरी के
विधायक जी को मंत्री बना रहे हैं।
टिहरी के विधायक जी के मन्त्री बनने की जानकारी मुझे शपथ के बाद एक पत्रकार मित्र ने दी।
मेरी क्या मनोदशा हुई होगी?
आप समझ सकते हैं।
वार्ता जारी रहेगी…
आप अंदाज़ा लगा सकते हैं किस तरह के हालात बन रहे कांग्रेस में वो भी ठीक विधानसभा चुनाव से पहले! कहने को कांग्रेस नेतृत्व ने हरीश रावत को कैंपेन कमांडर बनाया है और किशोर को पार्टी में आपसी समन्वय का ज़िम्मा सौंपा है। लेकिन ये किस तरह का कैंपेन प्लान हरदा डिजाइन कर रहे कि कल तक उनके ‘अनन्य सहयोगी’ सहयोगी रहे किशोर उपाध्याय अब उनको छुरी और खुद को कद्दू बताकर सार्वजनिक रूप से अपना दर्द और हरदा पर दग़ाबाज़ी की तोहमत लगा रहे हैं.., बार-बार, लगातार, किस्तवार!
यह भी कि आखिर किस तरह के समन्वय का ज़िम्मा किशोर संभाल रहे जो ख़ुद को पूर्व पीएम स्वर्गीय राजीव गांधी का करीबी बताते हैं लेकिन हरदा से हिसाब चुकता करते खुली जंग छेड़े बैठे हैं। दरअसल किशोर का दर्द है कि हरदा ने 2017 में भी दिनेश धैन्ने के लिए टिहरी छोड़ने को मजबूर किया और आज जब वह टिहरी से ताल ठोकना चाह रहे तब भी हरदा का वह समर्थन नहीं मिल पा रहा जिसकी उनको दरकार है। साफ साफ समझें तो किशोर की चिन्ता है कि हरीश रावत का सॉफ्ट कॉर्नर आज भी दिनेश धैन्ने के लिए बना हुआ है। इसकी तस्दीक़ तब भी होती है जब कांग्रेसी कॉरिडोर्स में यह चर्चा चलती है कि ‘किशोर हट जाएं तो हरदा टिहरी में धैन्ने को ले आए!’
ताज्जुब यह है कि यह हाल उस पार्टी का है जिसको 2014 के बाद से उत्तराखंड में एक भी जीत नसीब नहीं हो पाई है बल्कि इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि जब हरदा मुख्यमंत्री थे और किशोर प्रदेश अध्यक्ष तब कांग्रेस की वह गत हुई वो शिकस्त मिली कि पार्टी 11 विधायकों पर यानी महज क्रिकेट टीम का नंबर बनकर रह गई।
हार का सिलसिला कांग्रेस का ही नहीं थम रहा बल्कि एक-दूसरे के ‘अनन्य सहयोगी’ रहे हरदा-किशोर, दोनों चुनाव दर चुनाव हार का मुंह देख रहे। किशोर 2012 में टिहरी हारे तो आरोप तब के एक बड़े कांग्रेसी नेता( विजय बहुगुणा पढ़ सकते हैं अगर किशोर को एतराज न हो तो!) पर षड्यंत्र से हराने का लगाते आ रहे हैं। 2017 में किशोर सहसपुर से हारे तो आरोप षड्यंत्र से हराने (टीम हरीश रावत पढ़ सकते हैं अगर किशोर को एतराज न हो तो!) का आरोप लगा रहे हैं।
हार को लेकर हाल हरीश रावत का भी किशोर से बेहतर नहीं बल्कि और खराब ही कहा जा सकता है लेकिन पार्टी ने आखिरी पारी के तौर पर 2022 की जंग में चेहरा भले न सही आगे जरूर कर दिया है। मुख्यमंत्री बनने के बाद धारचूला का उपचुनाव जीतने के बाद से हरदा न कांग्रेस को कोई जीत दिला पाए और न खुद ही कोई चुनाव जीत सके।
हार का सिलसिला ऐसा चला आ रहा है कि हरदा के मुख्यमंत्री रहते 2014 में कांग्रेस लोकसभा की पाँचों सीटों पर साफ हो गई। 2017 में कांग्रेस को सबसे बुरी हार मिली, खुद हरीश रावत दो-दो जगहों, किच्छा व हरिद्वार ग्रामीण से हार गए। हार का दौर इसके बाद भी जारी है और 2019 में भी मोदी लहर बरक़रार रही और कांग्रेस पांच की पांच सीटों पर ढेर रही, हरिद्वार छोड़कर भगत सिंह कोश्यारी के हटने से नैनीताल में अजय भट्ट को लड्डू समझकर लड़ने पहुँचे हरदा को सबसे करारी हार झेलनी पड़ी।
यानी 2014 के बाद से भाजपा चुनाव दर चुनाव कांग्रेस को करारी शिकस्त देती आ रही हैं लेकिन अब जब बार-बार मुख्यमंत्री बदलने और पांच साल की सत्ता विरोधी लहर, किसान आंदोलन जैसी चुनौतियों से भाजपा दो-चार हो रही तब कांग्रेस को जीत करीब नजर आ रही। सवाल है कि दिग्गज नेताओं में ऐसे ही सिर फुटौव्वल जारी रही तो कहीं भाजपा के ‘युवा प्रदेश-युवा नेतृत्व’ के नारे में कांग्रेस के लिए बाइस में इक्कीस होने का सपना भी मरुस्थल में मृग-मरीचिका साबित न हो जाए!